Wednesday, May 15, 2024

Discover yourself

 What it takes to realize that you have come very long from a point where you were discovering yourself are called "years". Years that you spent thinking that one day you you will change everything , Years that you spent going with flow, years that you spent pleasing people, years that you spent trying to be good as per a definition set by others, years that you spent just trying to settle your life in a secure way, years that you spent trying to fit in your role and not writing a role for yourself, years that you spent trying to understand people around you and still having no clue who they are, years that are gone in a blink of eye, years that have taken your identity from you and made you who you actually dint want to be, years that are laughing at you but you cant hold them back, years that you will always want to come back to you.

But the good part is that you have realized, and this realization has just pushed you to the same point where you left years back and now you are all set to start discovering yourself again.

So just get up and go for it.

Tuesday, May 14, 2024

Surrounded by "Strangers"

 Aloof sounds a demotivating, depressive and negative word but , it's not too bad after all. When you are aloof you find "yourself", you believe in "yourself" and you trust "yourself". when you are surrounded you may get lost and there is a high possibility of you being misunderstood, judged, criticized and may be discussed to an extent that your believe in yourself might get shaken. And that's when you realize the true power of the word "Aloof". It's so funny how we start loving, liking and appreciating people in life and how things just turn around and you just feel that None of them knows you. Anyways it's hardly handful of them whom you were sure that they know you and they understand you, But one day you get to know they don't know you at all. 

"Realization" is a terrific phase no matter when it comes in life. And "Acceptance" after realization is more troublesome. I might sound sadistic but who cares now. But hey, Is it true that the one who says "who cares" cares the most. Perhaps all that we read , we hear, we learn seems meaningless one day and it all shrinks into a ball which is in your hand and you are all set to through it miles away. What phase of life is this? who cares ? Does anyone really?

Friday, June 26, 2020

Inside

Inside some words are echoing loud because outside these words have lost their identity. Disturbed - Seems a small word today. Emotions sounds like a word from different Era. Were we always like that or its just that we have seen each other in close proxymity now only ? ..... Were we used to be pray on someone's pain always or its just a quality which we recently developed? Were we always so silent on unethical atmosphere around us or we have just learnt  to become quite about it? Were we always so tied up by system that we were never able to speak against it or its just that we have realised it just now ? Were we always used to digest so much of negativity with a hope of better tomrrow or we have just learnt it?
Are we growing to be a better being or becoming just a surviver ? Were we really so lost or we are loosing the track now?

I wish there would not have been social media. I wish we would have escaped so many news which made us feel like we  are living in a world where man has become everything but not a human being. What a tragic world we are living in. We sympathise but never help, we watch tragidies everyday and assume deep somewehere in our mind that it will never happen to us. We have learnt to take news like rape, suicide, murder as our daily schedule and nothing new. More we try to know something, more it seems ugly so we have just learnt to ignore things and move on. But it gives me a lot of internal disturbance when I see that truth, honesty, hard work, love, trust, faith etc they all have just remained as words and nothing else. No meaning at all. In this age of social media, fast friends and fast food I wish we find friends who make us feel that the world is still beautiful.
I wish all those who have lost their self or life in this cruel world can come back and start from the begining.... I don't wish to learn to live in such kind of world Rather I wish the beaùty of this world come back and we can again  become human beings who are there to love each other and live gracefully.

Friday, May 29, 2020

Lockdown days - ज़हरीली हवायें

हवायें गर्म हो गयी हैं , इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं हुआ इस साल , क्योंकि हवायें ज़हरीली होने लगी हैं ! गर्मी तो हम झेल लेंगे पर इस ज़हर को कैसे बर्दाश्त करेंगे , बस इसी सोच में हवाओं के गर्म हो जाने का पता ही नहीं चला !
हर ख़बर लगती है कि शायद ये सबसे बुरी ख़बर है , पर अगले ही दिन उस से भी ज़्यादा कुछ दर्दनाक सामने आ जाता है ! कहीं मासूम बच्चा अपनी माँ की गोद में दवाई ना मिल पाने की वजह से दम तोड़ रहा है , तो कहीं भूख से एक माँ मर जाती है और उसका छोटा सा बच्चा जिसने बस अभी सिर्फ चलना ही सीखा है , अपनी मरी हुयी माँ को उठाने की कौशिश कर रहा है , इस बात से अनजान की वो अब कभी नहीं उठेगी ! मज़दूर ख़ून के आँसू रो रहे हैं ! बेचारे सालों पहले भूख से भाग कर शहरों में आये थे , आज मुसीबत आयी तो शहर की हवायें इनके लिए ज़हरीली साबित हुयी ! सो सर पे जीवन का बोझ रख ये लोग वापस गांव की तरफ निकल पड़े हैं ! हज़ारो किलोमीटर तपती धूप में पैदल चल रहे हैं , इस होंसले के साथ कि अपने घर पहुँच जाएँ बस ! कुछ पहुँच रहे हैं , और कुछ रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं !
कुदरत कुछ ज़्यादा ही ख़फ़ा हो गयी है ! जब कोई आपदा देश या संसार पे आती है तो कुछ लोग एक दुसरे की मदद में लग जाते हैं और कुछ लोग एक दूसरे को लूटने में लग जाते हैं ! और वही इस २०२० की आपदा में भी हो रहा है !
अस्पतालों में लोग दम तोड़ रहे हैं , इलाज नहीं हो पा रहा , लोग १५०० किलोमीटर कड़ी धूप में पैदल चल रहे हैं कि बस किसी तरह अपने घर पहुँच जाएँ , बेरोज़गारी चरम सीमा पे है , उद्योगपती कँगाल होने को आये हैं , आम आदमी २-३ महीने से सैलरी ना मिलने से परेशान है , कितने ही लोग डिप्रेशन में आ कर आत्महत्या कर  रहे हैं , सबका जीवन रुक सा गया है ..... आज २ महीने से सब अपने अपने घरों में बंद हैं और कुछ बेचारे अपने घर भी नहीं पहुँच पा रहे क्योंकि यातायात के साधन बंद हैं ..... पूरा देश बंद है .....कहीं जंगल जल रहे हैं , कहीं गैस लीक हो रही है , कहीं धरम के नाम पर हत्यायें हो रही हैं तो कहीं भूख़ से लोग दम तोड़ रहे हैं !
कभी बचपन में कहानियों में ही सुना था ये सब ! बदनसीबी से आँखों देखने को मिल रहा है ! कभी कभी लगता है को हॉलीवुड की कोई भयानक मूवी को जी रहे हैं !  ऐसे में राजनीती वाले अपनी ही रोटियाँ सेकने में लगे हैं ! देश की इतनी बर्बादी को भी विकास का मुखौटा पहना कर आम आदमी की आँखों में धूल झोंकने में लगे हैं !
और बेचारा आम आदमी हमेशा की तरह परेशान है और हैरान है की ये हो क्या रहा है !
   - मंजिता हुड्डा

Thursday, May 14, 2020

Lockdown days - " रात "

हर रोज़ वही "दिन" और वही "रात" हुआ करते थे ..... सदियों से !
पर ना कभी रात को जी भर के निहारा , ना कभी दिन से बैठ के गुफ़्तगू की ! शायद "दिन" और "रात" को इस बात का बुरा लग गया ! तभी तो सबके जीवन को रोक कर वो अपने होने का एहसास करा रहे हैं आजकल ! ....... अब ये आलम है की "रातों" को जी भर के निहारती हूँ मैं, और "दिन" से घंटो बातें करती हूँ ! ना जाने कितने और लोग मेरी ही तरह दिन और रात से मुलाक़ात कर रहे होंगे इन दिनों........
अभी कल ही की बात है , मैं "रात" को देखे जा रही थी , तो मन हुआ उस से कुछ पूछने का ! ....... मैंने "रात" से पूछा की तुम इतनी काली क्यों हो , उसने कहा कि मुझे उजाले से डर लगता है , इसलिए मैं उस से दूर ही रहती हूँ , क्योंकि उजाले में सबके असली चेहरे नज़र आ जाते हैं !
मैंने उसको समझाया कि अरे पगली आजकल लोग मुखौटा लगा कर घूमते हैं , असली चेहरा कभी नहीं दिखाते ! और कुछ लोग तो रात को भी मुखौटा पहन कर ही सो जाते हैं ! पर "रात" को मेरी बात समझ में नहीं आयी , वो हल्का सा मुस्कुराई और बोली " तब तो समस्या और भी बड़ी है , अब तो मैं कभी भूल कर भी उजाले को अपने पास नहीं आने दूँगी " !

  - मंजिता हुड्डा

Wednesday, May 13, 2020

Lockdown days - छत्त

जब दिल्ली की सर्दियों में, मैं अक्सर माँ और बाकी परिवार के साथ घर की छत्त पे धूप में बैठती थी , तो कभी इस बात का ख़याल नहीं आया की एक दिन यूँ  बैठना एक सपना भी बन सकता है !
यहाँ मुंबई में ना तो सर्दियाँ हैं और ना छत्त और आजकल परिवार के साथ बैठना ही अपने आप में एक सपना सा लगता है ! रिश्तों की अहमियत कहाँ रह गयी है आजकल !
 वो छत्त मैं बहुत मिस करती हूँ !  जब कभी मन उदास होता तो मैं छत्त पे चली जाती थी और जब कभी बहुत ख़ुशी होती तब भी मैं  छत्त पर पहुँच जाती थी ! ...... छत्त पे वो बचपन में क्रिकेट खेलना भी कभी नहीं भूल पाती मैं ! और पड़ौस के घर में जो अमरुद का पेड़ था , उनका स्वाद भी याद आता है जब भी कभी मैं छत्त को याद करती हूँ ! क्योंकि वो अमरुद भी इसलिए तोड़ पाती थी कि पड़ोस की छत्त हमारी छत्त से जुडी हुयी थी ! और पड़ौसी के पेड़ से अमरुद चुराकर खाने का मज़ा ही कुछ और होता था ! उसी छत्त पे मैं घर घर भी खेला करती थी ! सब आस पास के बच्चे इक्कट्ठे हो कर किसी न किसी की छत्त पे खेला करते थे !
मैंने छत्त पे अपना बचपन गुज़ारा है और एक लगाव सा है उस छत्त से !
पर अब तो ना वो छत्त है और ना वो सर्दियाँ और न वो रिश्ते ...... छत्त और सर्दियाँ दिल्ली में रह गयी और रिश्ते बड़े हो गए !

 - मंजिता हुड्डा

Monday, May 11, 2020

Lockdown days - ख़ामोशी की चींख

ख़ामोशी इतनी ख़ामोश नहीं होनी चाहिए कि उसकी चींख सुनाई देना बंद हो जाए ! ख़ामोशी में वो कशिश होनी चाहिए जो आपकी बातों में भी कभी ना दिखी हो !
पर ऐसा होता कहाँ है ..... आप जब तक ख़ामोश हो अच्छे हो ! जिस  दिन ख़ामोशी ने आवाज़ उठायी , उसे गुनेहगार साबित कर दिया जाता है , और आपको आइना दिखाया जाता है ! आइना भी ऐसा जिसमें आप ही का चेहरा सबसे भद्दा दिखता है !
आपकी चुप्पी सबको भाती है ! उस चुप्पी में दबी उदासी कभी किसी ने नहीं देखी ! आपको समझदार , सहज और ना जाने क्या क्या खिताब दिलाये इस चुप्पी ने !
पर जिस दिन ज़ुबान ने आगे कदम बढ़ाया तो वो सारे खिताब आपसे छीन लिए गए , यहाँ तक की आपको नए तमगे मिलने लगे !
और इन नए तमगों की चमक सिर्फ़ और सिर्फ़ चुभने और जलने वाली चमक थी !
ये सब देख आपकी ख़ामोशी आपसे बोल उठी .... " देखा मैंने कहा था न कि मैं ख़ामोश ही अच्छी हूँ , चीखूंगी तो वो चींख किसी को नहीं सुनाई देगी "

- मंजिता हुड्डा