Wednesday, May 13, 2020

Lockdown days - छत्त

जब दिल्ली की सर्दियों में, मैं अक्सर माँ और बाकी परिवार के साथ घर की छत्त पे धूप में बैठती थी , तो कभी इस बात का ख़याल नहीं आया की एक दिन यूँ  बैठना एक सपना भी बन सकता है !
यहाँ मुंबई में ना तो सर्दियाँ हैं और ना छत्त और आजकल परिवार के साथ बैठना ही अपने आप में एक सपना सा लगता है ! रिश्तों की अहमियत कहाँ रह गयी है आजकल !
 वो छत्त मैं बहुत मिस करती हूँ !  जब कभी मन उदास होता तो मैं छत्त पे चली जाती थी और जब कभी बहुत ख़ुशी होती तब भी मैं  छत्त पर पहुँच जाती थी ! ...... छत्त पे वो बचपन में क्रिकेट खेलना भी कभी नहीं भूल पाती मैं ! और पड़ौस के घर में जो अमरुद का पेड़ था , उनका स्वाद भी याद आता है जब भी कभी मैं छत्त को याद करती हूँ ! क्योंकि वो अमरुद भी इसलिए तोड़ पाती थी कि पड़ोस की छत्त हमारी छत्त से जुडी हुयी थी ! और पड़ौसी के पेड़ से अमरुद चुराकर खाने का मज़ा ही कुछ और होता था ! उसी छत्त पे मैं घर घर भी खेला करती थी ! सब आस पास के बच्चे इक्कट्ठे हो कर किसी न किसी की छत्त पे खेला करते थे !
मैंने छत्त पे अपना बचपन गुज़ारा है और एक लगाव सा है उस छत्त से !
पर अब तो ना वो छत्त है और ना वो सर्दियाँ और न वो रिश्ते ...... छत्त और सर्दियाँ दिल्ली में रह गयी और रिश्ते बड़े हो गए !

 - मंजिता हुड्डा

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